प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन संभाग
विज़न
देश में आहार, पर्यावरण, पोषण और आजीविका सुरक्षा के लिए प्राकृतिक संसाधनों का टिकाऊ प्रबंधन।
मिशन
प्राकृतिक संसाधनों को नुकसान पहुंचाये बिना स्थानिक, कम लागत की पर्यावरण हितैषी संरक्षण और प्रबंधन प्रौद्योगिकियों का विकास, कृषि उत्पादकता और लाभ प्राकृतिक संसाधनों को नुकसान पहुंचाए बिना।
- परिणाम- प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन संभाग का फ्रेमवर्क डाक्यूमेंट (1 अप्रैल 2011 से 31 मार्च 2012)
- वार्षिक प्रदर्शन मूल्यांकन रिपोर्ट (1 अप्रैल 2011 से 31 मार्च 2012)
अधिदेश
प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन के क्षेत्र में टिकाऊ कृषि उत्पादन और संसाधन संरक्षण के लिए अनुसंधान और विकास कार्यक्रमों का नियोजन, समन्वयन एवं निगरानी। प्राकृतिक संसाधनों के क्षेत्र में ज्ञान भंडार के रूप में सेवा प्रदान करना।
संगठनात्मक ढांचा
प्राथमिकता वाले क्षेत्र
- भू-संसाधन लक्षण वर्णन, प्रबंधन और भूमि उपयोग नियोजन (एनबीएसएस एंड एलयूपी, नागपुर)
- जल प्रबंधन (डीडब्ल्यूएम, भुबनेश्वर)
- मृदा स्वास्थ्य और पोषण प्रबंधन (आईआईएसएस, भोपाल)
- समस्याग्रस्त मृदाओं-लवणीय, क्षारीय, अम्लीय और जलसंभर मृदाओं का प्रबंधन ( सीएसएसआरआई, करनाल , आईआईएसएस, भोपाल)
- मृदा और जल संरक्षण-जल संभर प्रबंधन (सीएसडब्ल्यूसीआरटीआई, देहरादून)
- फसल विविधता (पीडीएफएसआर, मोदीपुरम, क्रीडा, हैदराबाद)
- बारानी/शुष्क भूमि कृषि (क्रीडा, हैदराबाद)
- कृषि वानिकी प्रबंधन ( एनआरसीएएफ, झांसी)
- खरपतवार नियंत्रण (डीउब्ल्यूएसआर, जबलपुर)
- समन्वित कृषि पद्धतियों का विकास (पीडीएफएसआर, मोदीपुरम, आईसीएआर-आरसीएनईएच, बाडापानी, आईसीएआर-आरसी, गोवा, आईसीएआर-आरसीईआर, पटना, क्रीड़ा, हैदराबाद)
- शुष्क भूमि प्रबंधन (काजरी, जोधपुर)
- • संसाधन संरक्षण प्रौद्योगिकियों का मूल्यांकन (आईसीएआर-आरसीईआर, पटना, क्रीडा, हैदराबाद, PDFSR Modipram)
उपलब्धियां
भूमि संसाधन अभिलक्षणन वर्णन, प्रबंधन और भू-उपयोग नियोजन
- देश के मृदा मानचित्रण तैयार किये गये (1:1 मिलियन स्केल), राज्य (1:250,000 स्केल) और कई जिले (1:50,000 स्केल)।
- देश के 20 कृषि पारिस्थितिकी क्षेत्रों और 60 कृषि पारिस्थितिकी उपक्षेत्रों का मानचित्रण 1:4.4 मिलियन स्केल पर किया गया।
- Prepared soil degradation map of the country (1:4.4 million scale) and soil erosion maps for states (1:250,000 scale) for effective resource conservation planning.
- भा.कृ.अनु.प., अंतरिक्ष विभाग, एनआरएससी, बारानी क्षेत्र प्राधिकरण, डीएसी और एसएलयूएसआई द्वारा उपलब्ध डेटाबेस के आधार पर देश में अपक्षरित भूमि का आंकलन किया गया।
- देश में विभिन्न भूमि उपयोग पद्धतियों के तहत मृदा कार्बन स्टॉक का दस्तावेज तैयार किया गया।
- महाराष्ट्र में नागपुर जिले के कोकारडा और कानियाडोल गांवों में किये गये अध्ययन के जरिए भागीदारी भूमि उपयोग नियोजन (पीएलयूपी) में नया दृष्टिकोण विकसित कर इसे वैधता प्रदान की गयी।
जल प्रबंधन
- पठारी क्षेत्र के कुंओ-सह-जलाशयों में वर्षाजल एकत्रण पद्धति के द्वारा सूक्ष्म स्तरीय जल संसाधन का विकास किया गया (रु. 30,000 अतिरिक्त सकल आय/वर्ष के अलावा 115 मानव दिवस/है अतिरिक्त रोजगार सृजन)
- तटीय जलमग्न क्षेत्रों में उपसतही जल एकत्रण ढांचा (एसएसडब्ल्यूएचएस) और सूक्ष्म ट्यूबवैल प्रौद्योगिकी (आय रु. 77,646 है, लाभ: लागत अनुपात 1:78)
- ड्रिप और स्प्रिन्कलर सिंचाई पद्धतियों में जल (30-50 प्रतिशत), मजदूरी (50 प्रतिशत), उर्वरक (30-40 प्रतिशत) की बचत के साथ उत्पादन में बढ़ोतरी (12-76 प्रतिशत) हुई।
- गुरुत्वाकर्षण और दबावयुक्त सिंचाई पद्धतियां जैसे कम ऊर्जा जल उपयोग (एलईडब्ल्यूए) उपकरण का डिजाइन तैयार किया गया और मूल्यांकन के बाद इसे लोकप्रिय बनाया गया।
- सिंचाई के लिए नहर पद्धति जुड़े जलाशय द्वारा एक दबावयुक्त सिंचाई पद्धति का विकास किया गया। इसका लागत-लाभ अनुपात 2:6 रहा।
- खुले कुंओं और ट्यूबवैलों में तलछट मुक्त जलबहाव के लिए रिचार्ज फिल्टर का विकास किया गया। प्रवाह पुनः चक्रण आधारित सिंचाई पद्धति के डिजाइन का विकास करके मूल्यांकन किया गया है।
मृदा स्वास्थ्य और पोषक तत्व प्रबंधन
- विभिन्न राज्यों के लिए डिजिटल मृदा उर्वरक मानचित्र (वृहद और सूक्ष्मपोषक) तैयार किये गये।
- मृदा परीक्षण आधारित उर्वरक संस्तुतियों के रेडी रेकनर का विकास किया गया।
- विभिन्न फसल पद्धतियों के लिए मृदा परीक्षण आधारित ऑन लाइन उर्वरक संस्तुति पद्धति लांच की गयी।
- देश की प्रमुख फसल प्रणालियों मे संतुलित उर्वरक देने को बढ़ावा देने के लिए समन्वित पोषण प्रबंधन पैकेजों के दस्तावेज तैयार किया गए।
- जैवउर्वरक प्रौद्योगिकी विकसित की गयी ताकि इसका बड़े पैमाने पर बहुगुणन करके किसान इसे अपना सकें।
- म्यूनिसिपल ठोस कचरे को 75 दिन में त्वरित रूप से कम्पोस्ट में बदलने के लिए एस्परजीलस टेरस/फ्लेवस/हीटरोमोरफू और राइजोम्यूकोर प्यूसिंलस फंगस की पहचान की गयी।
- आनुवंशिक चिन्हक प्रभेद पर आधारित जैवउर्वरकों के परीक्षण के लिए लिक्विड बायोफर्टिलाइजर फार्मूला और एक गुणवत्ता नियंत्रण किट का विकास किया गया।
समस्याग्रस्त मृदाओं-लवणीय, क्षारीय, अम्लीय और जलमग्न मृदा का प्रबंधन
- देश भर के (1:1 मिलियन स्केल) और आठ राज्यों (1:250,000स्केल) के अम्लीय मृदाओं (1:1 मिलियन स्केल) और लवण प्रभावित मृदाओं के मानचित्र तैयार किये गये।
- क्रांतिक रूप से अपक्षरित 2.5 करोड़ हैक्टर अम्लीय मृदा के सुधार के लिए एक प्रौद्योगिकी पैकेज विकसित किया गया। इन क्षेत्रों में संस्तुत उर्वरकों के साथ 2-4 क्विंटल/हैक्टर की दर से चूने के प्रयोग से खाद्यान्न उत्पादन दुगुना हो गया।
- अम्लीय और सोडायुक्त मृदाओं के सुधार के लिए कम लागत की प्रौद्योगिकी विकसित की गयी।
- धान, गेहूँ, सरसों और चना जैसी प्रमुख फसलों के लिए लवण सहिष्णु किस्मों का विकास किया गया।
- जलमग्न लवणीय मृदाओं के लिए उपसतही निकासी प्रौद्योगिकी का प्रदर्शन किया गया है।
- तटीय लवणीय क्षेत्रों के लिए लवणीय जल पर फैले ताजा जल एकत्रण की डोरोवू प्रौद्योगिकी को अंतिम रूप दिया गया।
मृदा और जल संरक्षण-जलसंभर प्रबंधन
- बारानी क्षेत्रों के लिए राष्ट्रीय जलसंभर विकास कार्यक्रम (एनडब्ल्यूडीपीआरए) के आधारस्वरूप 47 मॉडल जलसंभरों का नेटवर्क विकसित किया गया।
- विभिन्न अपक्षरित भूमियों (खदानों सहित) के स्थान विशेष जैवअभियांत्रिकी समाधान विकसित किये गये। इससे काफी हद तक जल प्रवाह और मृदा हानि में कमी आयी।
- भारत के विभिन्न वर्षा क्षेत्रों में 42 केन्द्रों के वर्षा सघनता अवधि और रिटर्न पीरियड इक्वेशन और नोमोग्राफ विकसित किये गये। खेतीहर मजदूरों के लिए विभिन्न तरीकों से अधिक वर्षा मूल्यांकन हेतु नोमोग्राफ का विकास किया गया।
- 50 रिकॉर्डिंग वर्षा गाज़ केन्द्रों और 400 वर्षा केन्द्रों का प्रयोग करके वार्षिक और मौसमी वर्षा इंडेक्स ई 130 और ई 11440 मानचित्र तैयार किये गये।
फसल विविधता
- 13 स्थानों पर धान-गेहूँ फसल चक्र के दक्ष विकल्पों का विकास किया गया। इनमें उत्पादन 12-43 टन/हैक्टर/वर्ष रहा।
- शुष्क पारिस्थितिकी में दक्ष विकल्प इस प्रकार रहे- कपास-गेहूँ (हिसार), कपास-मूंगफली (एस.के. नगर), बाजरा-आलू-क्लस्टरबीन (बिचपुरी), सोयाबीन-चना (राहुरी) और बाजरा-जौ-ग्वार (दुर्गापुर)। उत्पादन क्षमता 12-29 टन/हैक्टर/वर्ष देखी गई।
- आर्द्र और तटीय पारिस्थितिकी में 12-21 टन/हैक्टर/वर्ष की उत्पादन क्षमता वाले धान-धान पद्धति के दक्ष विकल्पों की पहचान की गयी।
- बारानी उपजाऊ भूमि के सूखा आशंकित क्षेत्रों में फसल विविधता के लिए पारंपरिक धान (केवल 1.9 टन/हैक्टर उत्पादन) की बजाय औसतन धान की तुलना में उपज 7.5 टन/हैक्टर औसत धान उपज वाली फसल पहचानी गई।
बारानी/शुष्क भूमि कृषि
- देश भर के बारानी/शुष्क भूमि (सूखे की आशंका वाले इलाके सहित) क्षेत्रों का लक्षणवर्णन किया गया।
- देश के प्रमुख बारानी कृषि पारिस्थितिकी क्षेत्रों के लिए फसल पद्धतियों का विकास किया गया ताकि मानसून में देरी या सूखे की स्थिति से निबटा जा सके।
- फसल-मौसम संबंध और जलवायु आधारित फसल योजना का विकास किया गया और www.www.cropweatheroutlook.ernet.in वेबसाइट द्वारा नियमित कृषि परामर्श देने की व्यवस्था की गई।
- भूमि और वर्षा के प्रभावी प्रयोग द्वारा किसानों को टिकाऊ आय देने के लिए स्थान विशेष के अनुरूप फसल पद्धतियों की पहचान की गयी।
- देश के प्रमुख बारानी कृषि पारिस्थितिकी क्षेत्रों के लिए स्थानिक इन सीटू और एक्स सीटू आर्द्रता संरक्षण पद्धतियों का विकास किया गया।
- विभिन्न कृषि पारिस्थितिकी क्षेत्रों के लिए जल एकत्रण क्षमता का आंकलन लिया गया, फार्म जलाशयों का डिजाइन तैयार किया गया और पूरक सिंचाई के लिए जल दक्ष फसली पद्धतियों की पहचान की गयी।
- पौधों में ग्रीष्म दबाव सहनशीलता के लिए कैस्टर सेमी-लूपर और सूक्ष्मजीवाणु टीकाकरण की जीवी प्रौद्योगिकी का विकास किया गया।
- आन्ध्र प्रदेश में सूखा निगरानी के लिए वेब आधारित डीएसएस का विकास किया गया।
- एनएआईपी के तहत नरेगा के जरिए ग्राम स्तर पर जल एकत्रण के अभिनव मॉडलों का विकास किया गया।
- बारानी फसलों की समय पर बुआई और कटाई तथा संसाधन संरक्षण के लिए बडी संख्या में कृषि यंत्रों का डिजाइन बनाकर इन्हें लोकप्रिय बनाया गया।
कृषि वानिकी प्रबंधन
- लवण प्रभावित भूमि के जैव सुधार के लिए कृषि वानिकी मॉडल विकसित किये गये।
- “एग्रो फोरेस्ट्री बेस” नामक वृहद ऑन लाइन डेटाबेस कृषिवानिकी पर तैयार किया गया।
- सीमान्त बारानी भूमि के लिए पेपर, पल्पवुड और हर्बल औषधियों से संबंधित विभिन्न कृषि वानिकी मॉडयूल्स का विकास किया गया।
- कर्नाटक के पहाड़ी क्षेत्रों के लिए हल्दी-चीकू टीक आधारित कृषि वानिकी पद्धति ग्मेलिना और बुन्देलखंड क्षेत्र के लिए लाख आधारित कृषि वानिकी पद्धति का विकास किया गया।
खरपतवार प्रबंधन
- खरपतवारों पर राष्ट्रीय डेटाबेस का विकास किया गया।
- देश की विभिन्न कृषि पारिस्थितिकी स्थितियों के लिए अनुकूल खरपतवार प्रबंधन पद्धतियों का विकास किया गया।
- नियोचेटिना वीविल (घुन) के प्रयोग द्वारा जलकुंभी के जैविक नियंत्रण का विकास किया गया।
- जैव एजेन्ट मैक्सिकन बीटल (भृंग) जाइगोग्रामा बाइकोलराटा के प्रयोग द्वारा पार्थेनियम हिस्टरोफोरस का नियंत्रण किया गया।
- गेहूँ में एवेना ल्यूडोविसिआना और फ्लेरिस माइनर जैसे घासीय खरपतवार के नियंत्रण में एक नया खरपतवारनाशी पिनोक्साडेन प्रभावी रहा।
- भारत में फसली और गैर-फसली भूमि पर तेजी से फैलने वाले खरपतवार वेलवेट बुश (लागासिया मोलिस) के नियंत्रण के लिए एक सुरक्षित रस्ट जैव एजेन्ट (प्यूसिनिया स्पी. प्रभेद NRCWSR3) की पहचान की गयी।
- इंचन पालित जलीय खरपतवार कटाई यंत्र के लिए खरपतवार एकत्रण ईकाई का विकास किया गया।
समन्वित कृषि प्रणालियां
- फसलों, बागवानी, कृषि वानिकी, मछली पालन, मुर्गी पालन, सूअर पालन, मशरूम उत्पादन और मधुमक्खी पालन आदि को शामिल करके समन्वित कृषि पद्धति का विकास किया गया है। इसमें 2-7 गुना उत्पादन बढ़ने की क्षमता है।
- बिहार के छोटे कृषक परिवारों (जिनके पास 1 एकड़ सिंचित भूमि और 4 संकर गाय हैं) के लिए फसल-डेरी आधारित कृषि प्रणाली का विकास किया गया।
- उत्तर-पश्चिमी हिमालय क्षेत्र के लिए वाटरमिल आधारित समन्वित कृषि प्रणाली का विकास किया गया।
- बिहार के मौसमी जलभराव वाले क्षेत्रों के लिए मत्स्य नाली-सह उभरी क्यारी आधारित बागवानी-मछली पालन पद्धति का विकास किया गया।
- सुधरी सोडायुक्त भूमि के लिए बहु उद्यमी कृषि पद्धति मॉडल का विकास किया गया।
- पश्चिमी घाट क्षेत्र के लिए धान, नारियल और खरगोश पालन आधारित समन्वित कृषि प्रणाली पैकेज विकसित किये गये।
शुष्क भूमि प्रबंधन (गर्म और सर्द मरूस्थल)
- मरूस्थलीय और वायु अपरदन मानचित्रों का विकास किया गया।
- शुष्क क्षेत्रों के लिए बालू-टीला स्थिरीकरण और शेल्टर बेल्ट रोपण तकनीकों का विकास किया गया।
- बिना उर्वरक और बीजोपचार के उच्च उत्पादक 4.4 क्विंटल/हैक्टर वाली काजरी मोथ-3 किस्म विकसित की गयी है। इसका लाभःलागत अनुपात 3:1 है।
- मरूस्थलीय पारिस्थितिकी में बेहद गर्मी और सर्दी के पर्यावरणीय दबाव को खत्म करने वाले पर्यावरण मैत्री कम लागत के पशु आवास विकसित किये गये।
- दक्षिणी-पूर्वी राजस्थान में मानसून की देरी होने पर अरण्डी के साथ मूंग की अन्तः फसली खेती बेहद लाभदायक रही।
- शुष्क क्षेत्रों में बेर के बागों में औषधीय पौधे एलोवेरा की अन्तः फसली खेती से रु. 26,000/हैक्टर का अतिरिक्त लाभ प्राप्त हुआ।
- एलोवेरा के जूस से दो हेयर केअर उत्पादन (एलोय शैम्पू और एलोय हेयर क्रीम) और दो स्किन केअर उत्पादन (एलोय मोयस्चराइजर और एलोय क्रेक क्रीम) का विकास किया गया।
- शीत में ओयस्टर मशरूम के अलावा ग्रीष्म में उपोष्ण मशरूम (कैलोसिले इंडिका) का उत्पादन लिया गया।
- अच्छी किस्म की करौंदा किस्मों सीजेडके 2001-17 और सी जेड के 2000-1 का विकास किया गया।
- शुष्क क्षेत्रों के पशुधन के लिए एक अपारम्परिक आहार स्रोत कांटे रहित कैक्टस (ओप्यूनशिया फीकुस इंडिका) की पहचान की गयी।
- सालवाडोरा ओलिोडस फलों से पीलू स्क्वैश और पीलू जैम जैसे मूल्यवर्धित उत्पाद तैयार किये गये।
- उन्नत थ्री इन वन काम्पैक्ट इंटिग्रेटिक डिवाइस का विकास किया गया है यह सोलर वाटर हीटर, कुकर और ड्रायर की तरह प्रयोग हो सकता है।
- शुष्क क्षेत्रों में घरेलू और छोटे कृषि उपयोग के लिए सोलर पीवी मोबाइल का विकास किया गया है।
- विलायती बबूल (प्रोसोपिस जूलीफ्लोरा) की कांटे रहित किस्म की फलियों से खुशबूदार कॉफी पाउडर और बिस्कुट का विकास किया गया।
संसाधन संरक्षण प्रौद्योगिकियां
- जल भराव वाली भूमि में अधिक उत्पादन के लिए उभरी और धंसी क्योरियों का मानकीकरण किया गया।
- गंगा के मैदानी भागों में समय, मशक्कत, ऊर्जा, जल और पोषक तत्वों की बचत द्वारा कृषि लागत को घटाने के लिए संसाधन संरक्षण प्रौद्योगिकियों - शून्य जुताई, क्यारी रोपण, लेज़र भूमि समतलीकरण की संस्तुति की गयी।
- नाइट्रोजन प्रबंधन (15 कि.ग्रा/नाइट्रोजन/हैक्टर धान में) के लिए लीफ कलर चार्ट डिवाइस का विकास किया गया।
- भुबनेश्वर में पारम्परिक रोपण की तुलना में धान सघनीकरण पद्धति 20X20 से.मी. दूरी से 22-35 प्रतिशत जल, 14 प्रतिशत मजदूरी में बचत और उच्च उत्पादन (6 टन/हैक्टर) प्राप्त हुआ।
प्रौद्योगिकी हस्तांतरण और सामाजिक-आर्थिक प्रभाव :
प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन प्रौद्योगिकियों को देश भर में आईवीएलपी कार्यक्रमों, कृषि विज्ञान केन्द्रों, राज्य विस्तार एजेंसियों आदि के जरिये किसानों में लोकप्रिय बनाया जा रहा है। यह संभाग प्रौद्योगिकियों से संबंधित प्रथम पंक्ति प्रदर्शनों, कृषकों को प्रशिक्षण, राज्य विभागों, एनजीओं, लोकप्रिय लेखों और तकनीक बुलेटिनों के स्थानीय भाषा में प्रकाशन और क्षेत्रीय कार्यशालाओं का आयोजन करता है। एनपीएनआरएम प्रौद्योगिकियां (जैसे जल एकत्रण और पुनर्चक्रण, जलाशयों का निर्माण और जीर्णोद्धार, जलसंभर प्रबंधन, कृषि वानिकी/वनीकरण, वर्मी कम्पोस्ट, कम्पोस्ट आदि) की सफलता पर आधारित नरेगा के तहत रोजगार सृजन के लिए आईसीएआर-आरडी इन्टरफेस की भी शुरूआत की गयी है।
जल संसाधन मंत्रालय द्वारा वित्तपोषित एक वृहद कार्यक्रम ‘‘जल की प्रत्येक बूंद से ज्यादा फसल और आय’’ भागीदारी के तहत बारानी क्षेत्रों में वर्षाजल के संरक्षण और उपयोग के लिए शुरू किया गया। ‘प्रदर्शन द्वारा सीखना’ प्रणाली के जरिये कृषि में जल उत्पादकता पर विशेष कार्यक्रम शुरू किया गया।
इसके अलावा एनआरएम पर आधारित कई महत्वपूर्ण नीतिगत फैसलों जैसे पोषण आधारित उर्वरक सब्सिडी, सूक्ष्म और गौण पोषकों से
भविष्य की रूपरेखा :
मृदा स्वास्थ्य और खाद्य में मिलावट, पर्यावरण प्रदूषण आदि समस्याओं से जूझ रहे हैं। कृषि पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से स्थिति और बिगड़ती जा रही है। इन उभरती चुनौतियों के समाधान के लिए संभाग ने अजैविक दबाव प्रबंधन (सूखा, शीत लहरी, बाढ़, लवणता, क्षारीयता, अम्लीयता और पोषण में कमियां आदि) जलवायु अनुकूल कृषि, संरक्षण कृषि - जैविक खेती, मृदा और जल का जैव उपचार, बायोफोर्टिफिकेशन, जैवईंधन, जैव-उद्योग जलसंभर और सूक्ष्म स्तरीय भूमि उपयोग नियोजन के लिए विकास आदि की अनुसंधान प्राथमिकताएं तय की हैं।
पोषण और जल उपयोग दक्षता बढ़ाने के लिए नैनोप्रौद्योगिकी और मृदा गुणवत्ता जांच के लिए बायोसेंसर का विकास भी अनुसंधान प्राथमिकता के क्षेत्र में है।
संपर्क सूत्र
डॉ. सुरेश कुमार चौधरी, उप महानिदेशक उप महानिदेशक (प्राकृतिक संसाधन प्रबन्धन)
प्राकृतिक संसाधन प्रबन्धन संभाग, कृषि अनुसंधान भवन-II, नई दिल्ली - 110 012 भारत
फोनः (कार्यालय) 91-11-25848364, 91-11-25848366, 91-11-25842285 एक्स. 1101
ई-मेलः ddg[dot]nrm[at]icar[dot]gov[dot]in