दक्षिण एशिया के लिए जलवायु अनुकूलन एटलस पर शुरू की गई परियोजना

दक्षिण एशिया के लिए जलवायु अनुकूलन एटलस पर शुरू की गई परियोजना

25-27 अप्रैल, 2023, नई दिल्ली

भाकृअनुप ने बोरलॉग इंस्टीट्यूट फॉर साउथ एशिया (बीसा-सिमिट) और बांग्लादेश, नेपाल तथा श्रीलंका की राष्ट्रीय कृषि अनुसंधान प्रणालियों के सहयोग से दक्षिण एशियाई कृषि (एसीएएसए) में जलवायु अनुकूलन की सूचना के लिए एटलस परियोजना की शुरूआत की है, जो दक्षिण-दक्षिण सहयोग में एक महत्वपूर्ण कदम है।

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दक्षिण एशिया, जो जलवायु परिवर्तन के लिए तप्त स्थल है, इससे निपटने के लिए राष्ट्रों के बीच एक ठोस विचार, जैसे – कृषि एवं आजीविका को जलवायु अनुकूल बनाने की जरूरत है, जिससे जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभाव, खासकर, अप्रत्याशित घटनाओं, बढ़ते तापमान और बदलते वर्षा पैटर्न से बचा जा सके।

परियोजना को नई दिल्ली, भारत में 25 से 27 अप्रैल, 2023 तक एक प्रारंभिक कार्यशाला के साथ लॉन्च किया गया था। बीएमजीएफ द्वारा वित्तपोषित और बीआईएसए द्वारा समर्थित यह परियोजना बीआईएसए, भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, बांग्लादेश कृषि अनुसंधान परिषद, नेपाल कृषि अनुसंधान परिषद और श्रीलंका कृषि विभाग के बीच एक संयुक्त प्रयास है।

परियोजना जलवायु परिवर्तन से संबंधित जोखिमों की पहचान करना चाहती है और बड़े पैमाने पर अनुकूलन को सक्षम करने के लिए अनुकूलन समाधानों को प्राथमिकता देना चाहती है।

डॉ. एच. पाठक, सचिव, (डेयर) एवं महानिदेशक, (भाकृअनुप) ने इस बात पर प्रकाश डाला कि देश की कृषि अधिक लचीली हो गई है और उन्होंने जलवायु-लचीले विकास पथ को अपनाने की आवश्यकता पर बल दिया। उन्होंने इस क्षेत्र में अधिक टिकाऊ कृषि के लिए मजबूत सहयोग के लिए भाकृअनुप की प्रतिबद्धता को भी नोट किया।

डॉ. एस.के. चौधरी,उप महानिदेशक (एनआरएम) भाकृअनुप, डॉ. राजबीर सिंह। एडीजी (एग्रोनॉमी, एग्रोफोरेस्ट्री एंड क्लाइमेट चेंज) और डॉ. वी.के. सिंह, निदेशक (भाकृअनुप-क्रीडा) ने भी लॉन्च कार्यशाला एसीसा में भाग लिया।

डॉ. ए.के. जोशी, प्रबंध निदेशक, बीएमजीएफ, डॉ. पी.के. अग्रवाल, प्रोजेक्ट लीडर, एसीएएसए, डॉ. पूर्वी मेहता, निदेशक, बीएमजीएफ के साथ-साथ भागीदार देशों में कृषि अनुसंधान के शीर्ष अधिकारी उपस्थित थे।

कार्यशाला में विभिन्न हितधारकों द्वारा संभावित उपयोगों पर विचार करते हुए एटलस को विकसित करने के लिए अपनाए जाने वाले तरीकों और तरीकों पर चर्चा की गई।

(स्रोत: केन्द्रीय शुष्क क्षेत्र कृषि अनुसंधान संस्थान, हैदराबाद)

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