वैज्ञानिक सहायता ने दिखाई सफलता की राह
मत्स्यपालन देश में आर्थिक रूप से पिछड़े अंतर्देशीय एवं समुद्री आबादी के एक बड़े वर्ग के लिए आजीविका का मुख्य स्रोत है। यह उपलब्ध जल स्रोतों के उपयोग के लिए प्रौद्योगिकियों की उपलब्धता के माध्यम से संभव हो सका है और यही कारण है कि यह वर्तमान में आय और रोजगार निर्माण का एक शक्तिशाली जरिया बन गया है। मछली पालन की बढ़ते मांग को देखते हुए भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद की महत्वपूर्ण संस्था भारतीय मसाला अनुसंधान संस्थान के अंतर्गत स्थित कृषि विज्ञान केंद्र ग्रामीण युवाओं को जल स्रोतों के उपयोग के माध्यम से अपने जीवन स्तर को सुधारने का प्रशिक्षण प्रदान कर रहा है।
समय पर प्रौद्योगिकी सलाह के साथ-साथ थोड़ा ध्यान, उचित योजना और दृढ़ संकल्प अद्भुत परिणाम दे सकता है। इस बात को केरल के कोझीकोड जिले के अथोली के रहने वाले मनोज के.के. ने झींगा मछली पालन से सिद्ध कर दिखाया है। मनोज ने बताया कि उन्होंने 15 साल पहले अपने घर के पीछे स्थित पांच एकड़ तालाब में मछली पालन के माध्यम से धन कमाने का विचार कर लिया था। मनोज ने कहा कि मैंने अपने घर के पास झींगा मछली की खेती शुरू की लेकिन जलवायु परिस्थितियों तथा सफेद धब्बा रोग के कारण मुझे इसका उचित लाभ न मिल सका। इन दिक्कतों के कारण मैं खारे पानी में मछली पालन की संभावनाओं को तलाशने की ओर उत्प्रेरित हुआ परंतु इस क्षेत्र में भी मुझे कुछ वैज्ञानिक दिक्कतों का सामना करना पड़ा। इसके समाधान के लिए मैंने कृषि विज्ञान केद्र की सहायता ली जिससे मुझे काफी लाभ हुआ।
घरेलू झींगा उत्पादन
तालाब में मादा झींगा की उपयुक्त मात्रा उपस्थित होने की वजह से वैज्ञानिकों ने मनोज को सुझाव दिया कि यहां मीठे पानी में झींगा मछली का उत्पादन किया जा सकता है। कृषि विज्ञान केंद्र पेरूवन्नामुझी के मछलीपालन विभाग के विषय विशेषज्ञ डॉ. बी. प्रदीप के अनुसार झींगा के लार्वा की काफी मांग होने के बावजूद इसे किसान पूरा नहीं कर पा रहे थे। इसकी पूर्ति में किसानों को काफी समस्या आ रही थी। इसकी मुख्य वजह यह थी कि जलवायु परिवर्तन और कई अन्य कारणों से मीठे पानी में झींगा उत्पादन पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा था। इसका एकमात्र हल यह था कि इनका विशेष परिस्थितियों में प्रजनन किया जाए। डॉ. प्रदीप ने बताया कि मीठे पानी में झींगा उत्पादन के लिए लाखों रुपए के निवेश की आवश्यकता होती है ऐसे में कृषि विज्ञान केद्र ने यह तय किया कि यहां के किसानों को घर के पिछवाड़े में छोटे तालाब बनाकर प्रजनन का प्रशिक्षण दिया जाए। इसी के अंतर्गत पिछले साल मनोज ने अपने घर के पिछवाड़े में हैचरी स्थापित की, जो कि मालाबार क्षेत्र में अपने किस्म की पहली हैचरी है। मनोज की इच्छाशक्ति और मेहनत के साथ-साथ वैज्ञानिकों की सहायता ने उत्कृष्ट परिणाम दिए। हालांकि यह एक प्रयोग था फिर भी मनोज ने पहले चरण में पांच हजार लार्वा पूर्व झींगा बेचने में कामयाब रहा। इस कामयाबी से उत्साहित होकर अब मनोज अपनी हैचरी का विस्तार करने की सोच रहा है। हाल में ही भारतीय मसाला अनुसंधान संस्थान ने मनोज को उसके द्वारा विकसित कम लागत के मछली पकड़ने वाले जाल को विकसित करने के लिए सम्मानित किया।
पर्लस्पॉट फार्मिंग के लिए कम लागत वाला जाल
मनोज के पर्लस्पॉट फार्मिंग में फाइबर जाल ने भी लोगों को काफी आकर्षित किया है। ये फाइबर जाल फाइबर वायर मेश से बनाया गया है। इस संरचना को पानी में तैराने के लिए अभी तक पीवीसी पाइपों का प्रयोग किया जाता रहा है, जो कि काफी मंहगा होता था। मनोज ने इन मंहगे पाइपों की जगह प्लास्टिक की खाली बोतलों का प्रयोग किया जिसकी मदद से भी जाल पानी की सतह पर सुगमतापूर्वक तैरने में सफल रहा। पहले वाले 3x1x1 जाल की कीमत तीन हजार रुपए थी जबकि इस नए जाल की कीमत उसकी तुलना में काफी कम केवल एक हजार रुपए है। मनोज अपनी इस जाल के माध्यम से पर्लस्पॉट फार्मिंग के प्रत्येक प्रजनन के दौरान 20 हजार फिंगरलिंग उत्पादित कर रहा है जिससे उसे काफी मुनाफा हो रहा है।
(स्रोत: एनएआईपी सब-प्रोजेक्ट मास मीडिया मोबिलाइजेशन, डीकेएमए और भारतीय मसाला अनुसंधान संस्थान)
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