उदयपुर जिले में स्थित देवला पहाड़ी के आदिवासी अपनी आजीविका के लिए वनों पर निर्भर हैं। शरीफा जैसे वनोत्पाद एकत्र करके, ये लोग इसकी बिक्री से अपनी आजीविका अर्जित करते हैं। अमूमन बिचैलियों के माध्यम से ये शरीफा की बिक्री करते हैं। इन्हें अच्छी कीमत दिलाने के लिए वर्ष 2009 में वनवासी वन एवं कृषि उत्पाद सहकारी समिति, देवला और कई अन्य स्वयं सहायता समूहों की स्थापना की गयी।
इस क्षेत्र में एक मौसम में शरीफा का औसतन उत्पादन 20-25 ट्रक तक होता है। ये फल जल्दी खराब हो जाते हैं इसलिए इन्हें कम कीमत पर तुरन्त बेच दिया जाता है। समिति के सदस्यों ने महसूस किया कि यदि कटाई उपरांत प्रबंधन शुरु किया जाये तो फलों के नुकसान को कम किया जा सकता है और फलों को दूर-दराज स्थानों तक भेजा जा सकता है। कृषि में प्लास्टिक का उपयोग विषय पर अखिल भारतीय समन्वित अनुसंधान प्रायोजना के वैज्ञानिक दल ने इस क्षेत्र का दौरा किया और शरीफा परिवहन संबंधी रखरखाव कार्यकलापों पर अध्ययन करके उपयुक्त सुझाव देने के लिए समिति के अधिकारियों से परामर्श किया।
आमतौर से यहां महिलाएं और बच्चे शरीफा तोड़कर समिति के संग्रह केन्द्र तक पहुंचाते हैं। इन आदिवासी समुदायों को फल परिपक्वन, तुड़ाई समय, भंडारण, छंटाई या पैकेजिंग की जानकारी बिल्कुल भी नहीं है। शरीफा के तुड़ाई उपरांत आमतौर से प्लास्टिक क्रेट में बिना कुछ बिछाये 20 कि.ग्रा. तक फल भर दिये जाते हैं और परिवहन से पहले अखबार से ढक दिये जाते हैं। 150 कि.मी. परिवहन के दौरान इसमें 3-5 प्रतिशत तक फलों का नुकसान देखा गया। क्रेट को इस तरह से भरा जाता है कि इसे खोलने पर ऊपर केवल बड़े, भारी और पके हुए फल ही नजर आते हैं। इसके अलावा महिलाओं और बच्चों को फलों की परिपक्वन अवस्था का बिल्कुल ज्ञान नहीं होता और लगभग सभी संग्रह केन्द्र कच्चे फलों की बड़ी मात्रा नष्ट कर देते हैं। कई संग्रह केन्द्रों में बेकार शरीफा फलों की मात्रा (2-3 क्विं. कच्चे फल) से अधिक भी होती है।


इसके लिए विभिन्न संग्रह केन्द्रों में कई प्रशिक्षणों का आयोजन किया गया। तुड़ाई, छंटाई, पैकिंग, भंडारण और रिकार्ड रखने जैसे कटाई उपरांत प्रबंधन के कई पहलुओं पर प्रशिक्षण दिया गया। इन आदिवासियों को बताया गया कि शरीफा फल को तुड़ाई के लिए तैयार तभी समझना चाहिए जब फल का बाहरी रंग बदलने लगे और एक-एक फांक अलग हो जाये तथा क्रीमी पीला रंग नजर आने लगे। तीन माह की अवधि में ये फल अनियमित अंतराल पर पकते हैं, इसलिए दो दिन छोड़कर इनकी तुड़ाई करनी चाहिए।
चयनित संग्रह केन्द्रों में बबल शीट और फोम शीट की पैकिंग सामग्री प्रदान की गयी और समिति के देवला केन्द्र में प्रशिक्षण कार्यक्रमों के माध्यम से उन्हें पैकिंग तकनीक सिखाई गयी। यद्यपि समिति शुरुआत में इस सम्पूर्ण प्रक्रिया में शामिल थी किन्तु बाद में इस समूह ने स्वयं यह कार्यभार संभाल लिया और अन्य वन उत्पाद भी इसमें शामिल कर लिये गये। इस प्रकार उचित सलाह व मार्गदर्शन से इस आदिवासी क्षेत्र के लोगों की आजीविका और आय में महत्वपूर्ण सकारात्मक सतत् प्रभाव पाया गया।
(स्रोत: कृषि में प्लास्टिक उपयोग पर अखिल भारतीय समन्वित अनुसंधान प्रायोजना, एमपीयूएटी, उदयपुर)
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