प्रौद्योगिकी हस्तआक्षेप से आम के बागों में आदिवासियों की आजीविका सुनिश्चित

प्रौद्योगिकी हस्तआक्षेप से आम के बागों में आदिवासियों की आजीविका सुनिश्चित

SS-mango-4-s_0.pngओडिशा के रायगाडा ब्‍लॉक के काशीपुर ब्‍लॉक में आदिवासियों का एक बड़ा भाग झूम खेती करता है और ये खेती उच्‍च भूमियों पर मृदा संरक्षण के कोई उपाय अपनाए बिना की जाती है जिससे मृदा का बहुत अधिक कटाव होता है। यह स्‍थान वन के भीतरी भाग में है तथा राज्‍य की राजधानी भुबनेश्वर  से 500 कि.मी. दूर है। आदिवासियों द्वारा की जाने वाली झूम खेती से भूमि उत्‍पादकता और मिट्टी की उर्वरता में बहुत क्षति हो रही थी तथा उपलब्‍ध प्राकृतिक संसाधनों की क्षमता भी कम होती जा रही थी। इस क्षेत्र की भूमि वृक्षों पर आधारित बहुवार्षिक बागवानी फसलों जैसे आम की खेती के लिए बहुत उपयुक्‍त है और इसकी वाणिज्यिक क्षमता है। यद्यपि राज्‍य सरकार लंबे समय से प्रयास कर रही थी लेकिन आदिवासी आम के वाणिज्यिक महत्‍व को अनुभव नहीं कर पा रहे थे। प्रदर्शनों की कमी के कारण विद्यमान बागों में नाशीजीवों का प्रकोप हो रहा था तथा आम के लिए सुनिश्चित बाजार भी उपलब्‍ध नहीं थे और ये सभी बातें आम की खेती के मार्ग में प्रमुख बाधाएं थीं।

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भारतीय बागवानी अनुसंधान संस्‍थान के केन्‍द्रीय बागवानी प्रयोग केन्‍द्र ने आदिवासियों की आजीविका को बढ़ाने के उद्देश्‍य से आम के बागों के मालिक कुछ गैर आदिवासी किसानों की सहायता से इस क्षेत्र में कार्य आरंभ किया। ये किसान आदिवासी किसानों के लिए जोखिम उठाने वाले, प्रौद्योगिकी प्रदर्शक तथा आदिवासियों और अनुसंधान केन्‍द्र के बीच की कड़ी बन गए। विद्यमान बागों में पोषक तत्‍व प्रबंध, फल मक्‍खी का नियंत्रण, तप्‍त जल उपचार (एचडब्‍ल्‍यूटी), फलों की पैकिंग तथा उनका परिवहन, सस्‍य पूर्व तथा सस्‍योत्‍तर विधियों का प्रदर्शन किया गया और यह दर्शाया गया कि अच्‍छे व स्‍वस्‍थ फल किस प्रकार प्राप्‍त किए जा सकते हैं। इसके साथ ही 500 कि.मी. की दूरी पर बाजार चैनल स्‍थापित किया गया। इससे आदिवासियों में विश्‍वास उत्‍पन्‍न हुआ और आदिवासी गांवों में आम की खेती वाले क्षेत्र में उल्‍लेखनीय वृद्धि लाने का मार्ग प्रशस्‍त हुआ।

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प्रेरित परिवारों को प्रौद्योगिकी हस्‍तक्षेपों जैसे रोपण सामग्री की आपूर्ति, रोपाई की तकनीक, ढलवां भूमि पर मिट्टी का प्रबंध तथा ग्राम बैठकों के माध्‍यम से सामाजिक जागरूकता लाने के लिए सहायता प्रदान की गई। आम की खेती करने वाले किसानों ने स्‍वयं को 'आजीविका के लिए बागवानी तथा कृषि से संबंधित पंचायतों की एसोसिएशन' (एचएआरपीएएल या हरपल) नामक सोसायटी के रूप में संगठित किया। आदिवासी गांवों के पड़ोसी प्रभाव के कारण 8 ग्राम पंचायतों नामत: काशीपुर, सुलगुंजा,सुंगेर, तालझारी, चन्‍द्रगिरी, शंकारा, कुडिपारी और मानुसगांव के 27 खेड़ों में 550 परिवारों को आम की रोपाई करने की प्रेरणा मिली और इस प्रकार अभी तक उपयोग में न आई पहाड़ी की तराई, हल्‍के ढलानों तथा ढलवां जमीन के अंतर्गत उच्‍च घनत्‍व मोड (5x5 मी.) के अंतर्गत 1150 एकड़ में आम के वृक्ष लगाए गए।

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इस प्रकार के उपायों से उच्‍च भूमियों से मृदा के कटाव में कमी हुई और आजीविका के वै‍कल्पिक स्रोत होने के कारण झूम खेती की परंपरा में भी उल्‍लेखनीय गिरावट दर्ज की गई। इस अवधि में लगाए गए कई बागों के वृक्षों में फल लगने शुरू हो गए हैं तथा परिवारों को अच्‍छा आर्थिक लाभ मिल रहा है। इस क्षेत्र में हुए कार्य को ओडिशा की राज्‍य सरकार ने सराहा है।

अधिकांश वर्तमान रोपाई ढलवां भूमि पर की गई है तथा मृदा और जल संरक्षण की स्‍व–स्‍थाने विधियों को अपनाया गया है। सामान्‍यत: बागों की मिट्टी घटिया किस्‍म की है और स्‍थान की दृष्टि से भी खेती के अनुकूल नहीं है इसलिए इस क्षेत्र में विशेष रूप से आईआईएचआर की आम की किस्‍मों को उगाए जाने की शुरूआत करने के प्रयास किए गए हैं। सभी खेतों में अति गहन रोपाई की गई है जिसके लिए वितान प्रबंध की सटीक कार्यनीतियों को अपनाने की आवश्‍यकता होती है। इस क्षेत्र में फुदकों, आम की गुठली में लगने वाले घुन, फलबेधक और फल मक्खियों का प्रकोप भी अधिक होता है। अत: इनके प्रबंध की तकनीकों का प्रदर्शन किया जा रहा है और किसान उन्‍हें अपना भी रहे हैं। तथापि, उत्‍पादन के आयतन को देखते हुए और अधिक तप्‍त जल उपचार संयंत्रों की आवश्‍यकता है। आम के फलों को एकत्र करके उनकी पैकेजिंग की सुविधाएं और बाजार के नए चैनल विकसित करके,विशेष रूप से राज्‍य के बाहर दक्षिण भारत में आम के बाजार की संभावनाएं तलाशी जा रही हैं। परिणामों से यह संकेत मिला कि परिणाम प्रदर्शनों, सामाजिक चेतना तथा विपणन चैनलों के विकास से आदिवासियों में आम की खेती के प्रति विश्‍वास उत्‍पन्‍न हुआ है। सफलता का व्‍यापक प्रभाव निकट भविष्‍य में और अधिक दिखाई देगा लेकिन आम की इस पट्टी में इस आदिवासी क्षेत्र को आम बहुल क्षेत्र बनाने के लिए और अधिक तकनीकी सहायता की जरूरत है। अब इस क्षेत्र को सीएचईएस – आईआईएचआर द्वारा आदिवासी योजना के कार्यान्‍वयन के लिए चुना गया है।

(स्रोत: केन्‍द्रीय बागवानी प्रायोगिक केन्‍द्र – आईआईएचआर,भुबनेश्वर,ओडिशा)

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