आज भारतीय किसान अपनी आजीविका सुरक्षा तथा आमदनी को बढ़ाने के लिए खेती के विभिन्न विकल्पों की ओर निहार रहे हैं। वन्य पशुओं, नाशीजीवों, रोग प्रकोप और मूल्यों में उतार-चढ़ाव के मामले में औषधीय फसलों की खेती करना कम जोखिमभरा होता है और साथ ही इसमें कहीं अधिक लाभ की संभावना भी बनी रहती है। साथ ही इन फसलों को अपघटित तथा सीमांत मृदाओं में अथवा बागानों में अंतर-फसल के रूप में भी बोया जा सकता है। यहां तक कि बैकोपा मोन्नीरी, सेन्टेला एसियाटिका, ऑसीमम सैंक्टम तथा पोगोस्टीमॉन पचौली से प्रतिरूपये निवेश अधिक लाभ हासिल किया जा सकता है। भारत में औषधीय एवं सगंधीय पौधा आधारित फसलचक्र प्रणालियों में यह देखने में आया है कि किसानों ने इनकी खेती से कहीं अधिक लाभ हासिल किया है।
तुलसी से होने वाले स्वास्थ्य लाभों में सांस संबंधी रोगों में आराम मिलने के साथ साथ बुखार, दमा, फेफड़े संबंधी रोग, हृदय रोग एवं तनाव का उपचार शामिल है। इस फसल की खेती गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, बिहार, पश्चिम बंगाल और तमिल नाडु राज्य में की जा रही है। विभिन्न फलदार फसलों के साथ तुलसी की खेती करने पर भूमि और अन्य संसाधनों का अधिकतम सीमा तक उपयोग करने का अवसर मिलता है। पंडोरी के श्री नील साहा और पोरडा, पेटलाड के श्री निशान्त कुमार एम. पटेल नामक दोनों किसान औषधीय फसलों के किसानों के लिए डीएएसडी, कालीकट, केरल द्वारा प्रायोजित केन्द्रीय सेक्टर स्कीम से प्रोत्साहित हुए। खेती के एक वर्ष बाद, इन्होंने अच्छा लाभ कमाया। इन्होंने नींबू के साथ अंतर-फसल के रूप में तुलसी की फसल को अपनाकर अधिकतम शुद्ध लाभ (प्रतिवर्ष प्रतिहेक्टेयर रूपये 59,201/-) । इसके विपरीत, अकेली फसल में सबसे कम शुद्ध लाभ (रूपये 32,095/-) अर्जित किया गया। निस्संदेह यह प्रतिइकाई क्षेत्रफल में उत्पादकता को बढ़ाने में अंतर-फसलचक्र की महत्ता को दर्शाता है और साथ ही फसल की असफलता के मामले में बीमा सुरक्षा भी देता है (चित्र 1)। ब्राह्मीके समग्र पौधे का उपयोग स्नायु टॉनिक के रूप में तथा मिरगी और पागलपन के उपचार हेतु देशी दवाइयों में किया जाता है। इसकी खेती उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, बिहार, पश्चिम बंगाल, तमिल नाडु, केरल, कर्नाटक, हिमाचल प्रदेश व उत्तराखण्ड के निचले पहाड़ी इलाकों में लघु स्तर पर की जाती है। विशेषकर वर्षाकाल के दौरान किसानों को जल भराव की समस्या का सामना करना पड़ता है। इस प्रकार की प्रतिकूल परिस्थितियों में, अधिकांश फसलों की खेती करना संभव नहीं होता। इसलिए,किसानों को विषेषकर वर्षाकाल में किसी उपयुक्त फसल की खेती करने की जरूरत महसूस होती है। गुजरात के आणंद जिले में गांव पंडोरी की यह एक सफल कहानी है जो कि निचले खेतों में ब्राह्मी की खेती करने वाले एक गांव के रूप में उभर कर सामने आया है। ब्राह्मी की खेती से मिलने वाले लाभ से प्रभावित होने वाले किसानों द्वारा इस फसल की खेती करने का निर्णय किया गया (चित्र 2)। इस फसल की कहानी किसान श्री नील साहा द्वारा एक बीघा खेत में रोपाई करने से प्रारंभ हुई । श्री साहा ने भाकृअनुप – औषधीय एवं सगंधीय पादप अनुसंधान निदेशालय (ICAR-DMAPR), बोरियावी के वैज्ञानिकों से सलाह मशविरा किया और भाकृअनुप – औषधीय एवं सगंधीय पादप अनुसंधान निदेशालय (ICAR-DMAPR), बोरियावी से रोपण सामग्री के रूप में 10 किग्रा. कटिंग हासिल की। पहले वर्ष किसान द्वारा रोपण सामग्री का गुणनीकरण स्वयं किया गया। पूरे पौधे को लगभग 4-5 सेमी. लंबे छोटे टुकड़ों में काटा गया जिनमें प्रत्येक में कुछ पत्तियां और नोड्स थे और जिन्हें क्यारियों में सीधे ही रोपा गया । अधिकतम वनस्पतिउपज हासिल करने के लिए रोपाई करते समय 40 x 40 सेमी. का फासला रखा गया। पौधों को मई माह में रोपा गया और उन्हें सितम्बर तक मानसून के गरम एवं आर्द्र महीनों में बढ़ने दिया गया। एक वर्ष में तीन बार तुड़ाई करके बारहमासी अवस्था में पौधों को बनाये रखा गया और फरवरी में पहली बारतथा जून अथवा उससे पहले दूसरी बार फसल रैटून ली गई। औसतन, तीन बार तुड़ाई करने पर 150 क्विंटल/हे. की शुष्क वनस्पतिअथवा तृण हासिल की गई। पहली तुड़ाई के बाद, रैटून फसलों से लगभग 15-20 क्विंटल/हे. की अतिरिक्त शुष्क तृण उपज हासिल की जा सकती है। सामग्री को सुखाने समय उसे एक दिन छोड़कर पलटा गया। सूखी सामग्री को पानी रोधी थैलों में पैक किया जाना चाहिए और उसका भण्डारण ठंडे सूखे कक्ष में करना चाहिए। खेती के एक वर्ष बाद, किसान अच्छा लाभ कमा सके। इससे पहले, किसान द्वारा पारम्परिक फसलों की खेती की जा रही थी लेकिन इस फसल से अधिक लाभ कमाने के बाद, इन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। औसतन, एक किसान निचले खेत में अकेली फसल के रूप में ब्राह्मी की खेती करके प्रतिवर्ष प्रतिहेक्टेयर रूपये 2,49,000/- का शुद्ध लाभ अर्जित कर सका। C2की लागत के मुकाबले लाभ : लागत अनुपात 2.99 था (तालिका 1 व 2)। इससे हमारे देश के निचले इलाकों में एक लाभकारी उद्यम के रूप में ब्राह्मी की खेती को बल मिला (चित्र 3)। ब्राह्मी उत्पादक इस उद्यम से न केवल कहीं अधिक आय हासिल कर रहे हैं वरन् अन्य स्थानीय लोगों को रोजगार भी उपलब्ध करा रहे हैं।
चित्र 3 : भाकृअनुप – औषधीय एवं सगंधीय पादप अनुसंधान निदेशालय (ICAR-DMAPR), बोरियावी के वैज्ञानिकों के मार्गदर्शन में किसान के खेत पर ब्राह्मी गुणनीकरण, खेती, तुड़ाई एवं पैकेजिंग रीतियां
तालिका 1 : प्रतिवर्ष प्रतिहेक्टेयर ब्राह्मी की खेती के लिए लागत एवं लाभ के संघटक
तालिका 2 : मध्य गुजरात के निचले इलाकों में ब्राह्मी फसल की खेती का अर्थशास्त्र
प्रदर्शन और अर्थशास्त्र के आधार पर चयनित पौधे यथा ब्राह्मी, तुलसी, मंडुकापर्नी और पचौली सीमांत भूमि के तहत सिट्रस, पपीता, शरीफा, अनार, आंवला तथा आम बागानों में उपयुक्त अंतर-फसल के रूप में पाए गए। औषधीय एवं सगंधीय पौधों को उल्लेखनीय आजीविका अवसरों के स्रोत के रूप में धीरे धीरे मान्यता मिल रही है और इसके साथ ही इनसे सीमांत किसानों के लिए मिट्टी का संरक्षण भी हो रहा है।
(स्रोत : भाकृअनुप – औषधीय एवं सगंधीय पादप अनुसंधान निदेशालय (ICAR-DMAPR), बोरियावी)
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