राइनोसेरस भृंग (ओराइटेस राइनोसेरस लिन) जिसे काले भृंग के लोकप्रिय नाम से जाना जाता है, नारियल उगाने वाले सभी राज्यों में नारियल का एक प्रमुख नाशीजीव है। यह पौदों, शिशु तथा वयस्क ताड़ वृक्षों को प्रभावित करता है तथा गैर-खिले पुष्प विन्यास वाले ताड़ वृक्षों को क्षतिग्रस्त करके नारियल की वृद्धि और उपज को कम करता है। वयस्क भृंग गोबर के लिए बनाए गए गड्ढों, केंचुए की खाद बनाने वाली इकाइयों, नारियल पिथ तथा नारियल के अपघटित लट्ठों आदि पर अंडे देता है। इस प्रकार के प्रजनन स्थल का भा.कृ.अ.प.- केन्द्रीय रोपण फसल अनुसंधान संस्थान, क्षेत्रीय केन्द्र द्वारा विकसित हरे मस्कार्डीन कवक (जीएमएफ), मेटाराइजि़यम एनिसोप्लीई से उपचार करने पर एक सप्ताह में भृंगों की विभिन्न अवस्थाएं संक्रमित हो जाती हैं और इस प्रकार नाशीजीव की संख्या अत्यधिक कम हो जाती है। एक सामान्य खरपतवार क्लेरोडेंड्रोन इनफोर्टुनेटम को भी नारियल के बागों में देखा गया है। यह भी काले भृंग की वृद्धि की अवस्थाओं का निरोध करते हुए प्रजनन स्थलों को प्रभावित करता है।
प्रौद्योगिकी
कृषक समाज के बीच प्रौद्योगिकी के प्रति पर्याप्त जागरूकता का न होना और जीएमएफ का पर्याप्त मात्रा में न मिलना इस पर्यावरण मित्र तथा प्रभावी जैव प्रबंधन प्रौद्योगिकी को अपनाने के मार्ग में प्रमुख बाधाएं हैं। इस समस्या से निपटने के लिए सीपीसीआरआई, क्षेत्रीय केन्द्र, कायमकुलम ने क्षेत्रव्यापी समुदाय अनुकूलन (एडब्ल्यूसीए) कार्यक्रम को सफलतापूर्वक लागू किया है। सीपीसीआरआई प्रौद्योगिकी के अनुसार इस कवक को सरल और सस्ती विधियों द्वारा फार्म स्तर पर आसानी से प्रगुणित किया जा सकता है। इन विधियों में चावल के दानों, कसावा के चिप्स और नारियल के पानी का उपयोग किया जाता है। इसका उत्पादन प्रशिक्षित खेतिहर महिला समूहों द्वारा फार्म स्तर पर जीएमएफ प्रगुणन इकाइयों के माध्यम से विकेंद्रीकृत किया गया। क्षमता निर्माण तथा इकाइयों की कुशलता के उन्नयन का कार्य सीपीसीआरआई के वैज्ञानिकों द्वारा किया गया जिसके परिणामस्वरूप नारियल की खेती करने वालों में निरंतर आत्मविश्वास सृजित हुआ। कृषि विभाग, नारियल किसानों के समूहों, पशुचिकित्सा विभाग, दुग्ध सहकारी समितियों, किसानों, मास मीडिया, स्थानीय पंचायत आदि जैसे संबंधित पक्षों के प्रभावी संबंध और नेटवर्क का निर्माण किया गया ताकि प्रौद्योगिकी को तेजी से प्रसारित किया जा सके और विभिन्न स्तरों पर लोकप्रिय बनाया जा सके।
मॉडल
इडावा ग्राम पंचायत में लागू किया गया मॉडल वर्ष 2010-13 के दौरान 520 हैक्टर का नारियल की खेती वाला क्षेत्र फील्ड स्थितियों में प्रभावी सिद्ध हुआ तथा इससे अन्य क्षेत्रों में प्रौद्योगिकी का तेजी से प्रसार व उपयोग हुआ। इस सफलता से प्रेरणा लेते हुए केरल के अलापुज़ा और त्रिवेन्द्रम जिलों की थेक्केकारा, देवीकुलंगारा, कृष्णापुरम, भरानीकावू और इडावा पंचायतों में लगभग 4,000 हैक्टर क्षेत्र को 2014-15 के दौरान इस कार्यक्रम के अंतर्गत लाया गया। प्रत्येक वार्ड में 12-15 सदस्यों से युक्त दो-तीन महिला समूहों को प्रौद्योगिकी हस्तांतरण संबंधी कार्यों और प्रजनन स्थलों का उपचार करने में शामिल किया गया। इस प्रकार कुल 150-200 महिलाओं को प्रेरित किया गया जिन्होंने प्रत्येक पंचायत में प्रौद्योगिकी को लोकप्रिय बनाने और अपनाने के मामले में अपनी-अपनी पंचायत का प्रतिनिधित्व किया।


स्वच्छ स्थितियों तथा प्रशिक्षण सहायता को सुनिश्चित करके कोई भी इकाई एक साधारण कमरे में आरंभ की जा सकती है। इस इकाई को स्थापित करने की आरंभिक लागत 8,000-10,000 रुपये के बीच आती है। इसके लिए वांछित सामग्री हैं : प्रेशर कुकर (20 लीटर क्षमता का), जीएमएफ का कल्चर, पॉलीप्रोपिलीन के थैले, गुणवत्तापूर्ण चावल तथा रूई, एल्यूमीनियम की पन्नी, मोटी मोमबत्तियां, दस्ताने आदि जैसे अन्य गौण साजो-सामान। चावल को आधा पकाया जाता है और पकाने के पश्चात इन्हें पॉलीप्रोपिलीन के थैलों में भरकर थैलों को प्रेशर कुकर में निर्जर्मीकृत किया जाता है। क्षेत्र को संदूषकों से मुक्त रखने के लिए कार्य स्थल पर मोमबतियां जलाई जाती हैं तथा जीएमएफ के कल्चर को थैलों में डालकर अच्छी तरह मिला लिया जाता है। इस प्रकार के थैले कमरे के तापमान पर लगभग एक सप्ताह रखे जाते हैं, ताकि कवक प्रगुणित हो सके। इस्तेमाल के लिए एक पैकेट जीएमएफ को एक लीटर पानी में मिलाकर प्रजनन स्थलों पर छिड़का जाता है। एक सप्ताह में ही मरे हुए भृंग गिडार देखे जा सकते हैं। प्रजनन स्थलों का इस प्रकार का उपचार वर्ष में केवल एक बार करना पड़ता है।
आउटरीच
पंचायतवार सामुदायिक अनुकूलन कार्यक्रमों की योजना बनाते समय प्रथम चरण में प्रत्येक वार्ड में राइनोसेरस भृंगों के सभी सक्षम प्रजनन स्थलों का मानचित्र तैयार करके विभिन्न स्टेकहोल्डरों की सक्रिय भागीदारी से एक सप्ताह के अभियान के रूप में जीएमएफ से भृंगों का उपचार करना है। चूंकि एक पैकेट (100 ग्रा.) जीएमएफ की उत्पादन लागत मात्र 20 रुपये है। अत: इस कार्यक्रम के लिए प्रत्येक पंचायत को केवल 20,000 से 25,000 रुपयों की आवश्यकता होगी। इस कार्यक्रम के प्रभाव विश्लेषण से पता चला है कि प्रौद्योगिकी के अपनाने वाले सक्षम स्टेकहोल्डरों के बीच इसकी 70 से 80 प्रतिशत पहुंच है और इस प्रौद्योगिकी के उपयोग से विशेष रूप से नारियल लगे वृक्षों पर राइनोसेरस भृंग का प्रकोप 75 प्रतिशत कम हो जाता है और इस प्रकार किसानों को उपज में होने वाली क्षति कम होती है। निचले स्तर पर भागेदारी तथा कार्यात्मक सम्पर्कों द्वारा इस प्रौद्योगिकी के उपयोग को सकारात्मक व प्रभावी ढंग से प्रसारित किया जा सकता है और इस प्रकार सीपीसीआरआई, क्षेत्रीय केन्द्र, कायमकुलम की गतिविधियों का संदेश प्रसारित किया जा सकता है।
(स्रोत : भा.कृ.अ.प. – केन्द्रीय रोपण फसल अनुसंधान संस्थान कासरगोड)
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