चंदन चौकी की आदिवासी पट्टी उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी जिले के 300 वर्ग कि.मी. से अधिक क्षेत्र में फैली हुई है और यहां की 99 प्रतिशत जनसंख्या थारू आदिवासियों की है जिनके लगभग 40 खेड़े हैं तथा 15 ग्राम सभाएं हैं। इस आदिवासी क्षेत्र को विपुल जल संसाधनों का वरदान प्राप्त है और यहां विभिन्न आकारों (0.08-1.5 हैक्टर) के 90 तालाब, नदियां, उप नदियां तथा नम भूमियां हैं। मछली पालन के अलावा यहां की अधिकांश आदिवासी जनसंख्या आसपास की नदियों तथा इनसे जुड़ी हुई नम भूमियों में मछली पालन संबंधी गतिविधियों में रत है।
थारू मांसाहारी भोजन के शौकीन होते हैं लेकिन स्थानीय उपज इनकी मांग को पूरा करने के लिए अपर्याप्त है। आदिवासी लोगों की आमदनी बढ़ाने के लिए इस क्षेत्र में मात्स्यिकी की क्षमता को अनुभव करते हुए भा.कृ.अनु.प.- केन्द्रीय अंत: स्थलीय मात्स्यिकी अनुसंधान संस्थान (सीआईएफआरआई) के इलाहाबाद स्थित क्षेत्रीय केन्द्र ने आदिवासी उपयोजना (टीएसपी) के अंतर्गत इस पट्टी की पहचान की है और वर्ष 2011-12 से क्षेत्र में मात्स्यिकी विकास से संबंधित अनेक गतिविधियां चलाई हैं।
केन्द्र की कार्यनीति मछली जीरा, मछली आहार तथा मछली पकड़ने के जाल आदि का वितरण करके आदिवासी लोगों में मछली पालन के प्रति जागरूकता सृजित करना, प्रशिक्षण और प्रदर्शन आयोजित करना तथा उन्हें सशक्त बनाना है। मछली पालकों को खुटार स्फुटनशाला, शाहजहांपुर, उत्तर प्रदेश का भ्रमण कराया गया ताकि इन आदिवासियों को मछली प्रजनन, नर्सरी में मछली पालन, मछली आहार तथा रोग नियंत्रण संबंधी गतिविधियों के बारे में शिक्षित किया जा सके। केन्द्र के निरंतर प्रयासों तथा निवेशों के रूप में निरंतर मिलने वाली सहायता के परिणामस्वरूप किसानों ने मछली पालन की वैज्ञानिक विधियों से सभी उपलब्ध तालाबों में मछली पालन का कार्य आरंभ किया तथा अपने उपभोग के साथ-साथ बिक्री के लिए भी भोज्य मछलियों का उत्पादन शुरू किया।
केन्द्र द्वारा प्रशिक्षण व प्रदर्शन को पूरा करने के पश्चात् 80 थारू मछली पालकों को भारतीय मेजर कार्प तथा विदेशी कार्प 430 कि.ग्रा. फिंगरलिंग के रूप में गुणवत्तापूर्ण मछली जीरा उपलब्ध कराया गया तथा अगस्त-सितम्बर 2014 के दौरान उनके तालाबों में इन मछलियों को रखा गया। मछली जीरे के अलावा मत्स्य आहार तथा चूने जैसे अन्य निवेश भी आदिवासियों में बांटे गए। स्टॉकिंग के समय फिंगरलिंग का कायाभार 10-25 ग्रा. के बीच था। छह महीनों की स्टॉकिंग में ही इनका भार काफी बढ़ गया (350-750 ग्रा.), यद्यपि इस अवधि के दौरान इस क्षेत्र में लंबे समय तक अत्यधिक ठंड पड़ी। परिणामों से यह संकेत मिला है कि मौसम के अंत तक इस क्षेत्र में मछली उत्पादन दोगुना हो जाएगा। कुछ किसानों ने तो अपने तालाबों से मछली बेचना शुरू भी कर दिया है।
इस क्षेत्र में मछली पालन विकास संबंधी गतिविधियों के शुरू होने से अब तक केन्द्र द्वारा विभिन्न निवेश जैसे ड्रैग जाल (15) तथा कास्ट जाल (40), मछली आहार, पोटाश, pH पेपर और चूना मछली पालकों को उपलब्ध कराए गए। ड्रैग जाल संबंधित प्रधानों को दिए गए ताकि वे अपने गांव में मछली पालकों को साझेदारी के आधार पर दे सकें। कास्ट जाल प्रशिक्षण कार्यक्रम में भाग लेने वाले प्रतिभागियों के बीच वितरित किए गए। आदिवासी लोग सीआईएफआरआई द्वारा चलाई जा रही मात्स्यिकी विकास संबंधी विभिन्न गतिविधियों में गहन रूचि प्रदर्शित कर रहे हैं।
अब इस आदिवासी पट्टी में मछली पालन की वैज्ञानिक विधियों को अपनाया जा रहा है और यह पट्टी नील क्रांति की ओर अग्रसर है।
(स्रोत: भा.कृ.अनु.प. – केन्द्रीय अंत:स्थलीय मात्स्यिकी अनुसंधान संस्थान का इलाहाबाद क्षेत्रीय केन्द्र, इलाहाबाद)
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