13 अप्रैल, 2023, नागालैंड
सतत विकास को आगे बढ़ाने के लिए उत्पादकता तथा हरित विकास पर नॉर्थ ईस्ट सस्टेनेबिलिटी कॉन्क्लेव का आयोजन आज यहां एनपीसी, डीपीआईआईटी, एमओसी एवं आई, भारत सरकार और भाकृअनुप-राष्ट्रीय मिथून अनुसंधान केन्द्र (एनआरसीएम), नागालैंड द्वारा संयुक्त रूप से किया गया। इस सम्मेलन का उद्देश्य भारत के पूर्वोत्तर क्षेत्र में सतत आर्थिक विकास को बढ़ावा देना था। यह आयोजन सरकार, निजी क्षेत्र, शिक्षा जगत तथा प्रगतिशील किसानों के प्रतिनिधियों को बुलाकर, इस क्षेत्र में सतत विकास लक्ष्य प्राप्त करने के लिए रणनीतियों और विचारों पर विचार-विमर्श करने और अंतर्दृष्टि साझा करने के लिए एक मंच प्रदान किया।
श्री संदीप के नायक, भारतीय प्रशासनिक सेवा, महानिदेशक, राष्ट्रीय उत्पादकता परिषद इस अवसर पर मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित थे। उन्होंने अपने मुख्य संबोधन में कहा कि एनपीसी देश में हरित विकास का नेतृत्व कर रहा है जो इसे बढ़ावा देने के लिए तकनीकी सहायता प्रदान करता है। उन्होंने कहा कि हमें एक नेट जीरो उत्सर्जन राज्य बनने के लिए एक कार्य योजना बनाने की आवश्यकता है जिसमें ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने और कार्बन तटस्थ गतिविधियों को कम करने के उद्देश्य से शमन या इसे गोद लेने के उपाय शामिल हों। उन्होंने कहा कि सतत विकास लक्ष्य प्राप्त करने में निजी क्षेत्र की भूमिका और पर्यावरण की दृष्टि से स्थायी परियोजनाओं या व्यवसायों का समर्थन करने के लिए हरित वित्त या हरित बांड की आवश्यकता होगी।
डॉ. बी.एन. त्रिपाठी, उप महानिदेशक (पशु विज्ञान) ने अपने उद्घाटन संबोधन में कहा कि जलवायु परिवर्तन को संबोधित करना एक महत्वपूर्ण मुद्दा है जो वर्ष 2070 तक विश्व स्तर पर शून्य ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन का लक्ष्य प्राप्त करने में सहायक होगा। उन्होंने कहा कि नागालैंड अपने विविध स्वदेशी समुदायों और समृद्ध जैव विविधता के लिए जाना जाता है। डॉ. त्रिपाठी ने कहा कि स्थायी कृषि को बढ़ावा देने और पर्यावरण को संरक्षित करने के साधन के रूप में जैविक और प्राकृतिक खेती पद्धतियां नागालैंड में लोकप्रियता प्राप्त कर रहीं हैं।
डॉ. डी.एन. ठाकुर, राष्ट्रीय अध्यक्ष, सहकार भारती ने मंदी के मौसम में खाद्यान्न की उपलब्धता के लिए उचित खाद्य भंडारण पर जोर दिया। उन्होंने कहा कि उपभोक्ताओं तक पहुंचने से पहले लगभग 40 प्रतिशत भोजन बर्बाद हो जाता है, इसलिए भोजन की बर्बादी को कम करने के उपाय किया जाना आवश्यक है। उन्होंने किसानों से सहकारी समितियों का गठन करने और जीवाश्म ईंधन के उपयोग को कम करने के लिए बायोगैस के उपयोग पर अधिक ध्यान केन्द्रित करने का आग्रह किया।
डॉ. के.एम. बुजरबरुआ, पूर्व उप महानिदेशक (पशु विज्ञान) एवं पूर्व कुलपति, एएयू, जोरहाट ने पूर्वोत्तर भारत के विशेष संदर्भ में फसल और पशुधन आधारित प्राकृतिक खेती पर व्याख्यान दिया।
डॉ. एस. वेणुगोपाल, निदेशक, राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान, नागालैंड ने पूर्वोत्तर भारत में हरित विनिर्माण के महत्व पर प्रकाश डाला। डॉ. नज़रुल हक, प्रधान वैज्ञानिक ने उत्तर पूर्व भारत में जैविक कृषि पर व्याख्यान दिया।
भाकृअनुप-एनआरसीएम के निदेशक, डॉ. गिरीश पाटिल एस. ने प्राकृतिक खेती में मिथुन की भूमिका पर प्रकाश डाला। श्री के.डी. भारद्वाज, निदेशक, पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन, एनपीसी, डॉ. टी.के. दत्ता, निदेशक, भाकृअनुप-सीआईआरबी, हिसार, हरियाणा, सासर्ड, मेडज़िफेमा, वेटरनरी कॉलेज, जलुकी, पटकाई क्रिश्चियन कॉलेज, चुमुकदीमा, एसईटी, दीमापुर के डीन और प्रोफेसरों ने भी इस कार्यक्रम में भाग लिया।
(स्रोत: भाकृअनुप- राष्ट्रीय मिथून अनुसंधान केन्द्र, नागालैंड)
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