भाकृअनुप के वैज्ञानिकों ने गेहूं के रतुआ फंगस पक्सीनिया ट्रिटिसिना के 15 जिनोम उपभेदों को खोज कर शानदार सफलता प्राप्त की है। इससे भारत सहित दुनिया के विभिन्न भागों में हानिकारक गेहूं रोगजनक द्वारा जनित महामारी की गतिशील प्रकृति को समझने में सहायता प्राप्त होगी। हालही में शोध जर्नल, जिनोम बायोलॉजी एंड इवोल्यूशन (http://gbe.oxfordjournals.org/content/8/9/2702.full.pdf+html) में “ ड्राफ्ट जिनोम ऑफ ह्वीट रस्ट पाथोजिन (पक्सीनिया ट्रिटिसिना) अनरिविल्स जिनोम - वाइड स्ट्रक्चरल वेरिएशंस डरिंग इवोल्यूशन” शीर्षक से शोध-पत्र प्रकाशित किया गया है।
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दुनिया की 50% से अधिक आबादी का प्रधान भोजन गेहूं है और यह देश की महत्वपूर्ण खाद्य सुरक्षा फसल गंभीर रूप से रतुआ रोग के तीन प्रकार से प्रभावित है। पत्ती का रतुआ रोग पूरे विश्व में पाया जाता है जिसके कारण अन्य गेहूं के रतुआ रोगों की अपेक्षा पैदावार को ज्यादा नुकसान होता है। फफूंदनाशक के न प्रयोग करन की स्थिति में गेहूं पत्ती का रतुआ रोग (पक्सीनिया ट्रिटिसिना) अन्य महामारियों की तुलना में गेहूं के कुल उत्पादन में 50 प्रतिशत से ज्यादा का नुकसान करता है। रतुआ महामारी के कारण 1970 और 1980 के दौरान देश में गेहूं उत्पादन संबंधी गंभीर समस्या का सामना करना पड़ा जिसका नियंत्रण रतुआ रोधी किस्मों की खेती कर किया गया था। भारत में जारी प्रतिरोधी किस्मों में से अधिकांश केवल विशिष्ट प्रतिरोधी जातियां शामिल हैं। इसलिए प्राकृति में पी. ट्रिटिसिना की नई जातियों एवं बायोटाइप का विकास जारी रहा था जो वर्तमान में भी गेहूं उत्पादकों व नीति निर्माताओं के लिए चिंता का विषय बना हुआ है।
डॉ. टी.आर. शर्मा, निदेशक, आईसीएआर – एनआरसीपीबी, नई दिल्ली द्वारा पक्सीनिया ट्रिटिसिना (पत्ती रतुआ रोगकारक) के डि नोवो जिनोम सिक्वेंसिग पर भारत द्वारा वित्त पोषित परियोजना, जैवप्रौद्योगिकी विभाग के साथ समन्वय किया गया। इसके साथ ही उन्होंने परिषद के तीन संस्थानों भारतीय पौध जैव प्रौद्योगिकी अनुसंधान केन्द्र, पूसा परिसर, नई दिल्ली, भारतीय गेहूं और जौ अनुसंधान संस्थान फ्लोवरडेल केन्द्र, शिमला, भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, क्षेत्रीय स्टेशन वेलिंग्टन और दो राज्यों के विश्वविद्यालयों, पंजाब कृषि विश्वविद्यालय, लुधियाना तथा तमिलनाडु कृषि विश्वविद्यालय, कोयंबटूर से समन्वय किया।
इन सहयोगों का मुख्य लक्ष्य रोगकारकों की डिकोडिंग द्वारा उच्च परिवर्तनशील जाति 77 और इसके 13 बायोटाइप और स्थिर जाति 106 के माध्यम से रतुआ फफूंद की परिवर्तनशीलता के आणविक आधार को समझना था। पहली बार जाति 106 को वर्ष 1930 में पहचाना गया था और राष्ट्रीय संग्रहालय, शिमला में संरक्षित किया गया था जो लगभग 85 वर्षों के बाद भी उत्परिवर्तित नहीं हुआ। वहीं जाति 77 को पूसा (बिहार) में पहचाना गया था जो देश के गेहूं उत्पादन को प्रभावित करते हुए 13 बायोटाइप में विकसित हो चुका है। इसलिए जाति 77 की अनुकूलन एवं नुकसान क्षमता की आणविक क्रिया-विधि और जाति 106 के तेज विकास व स्थिरता के आणविक आधार को जानना आवश्यक है।
आईसीएआर – एनआरसीपीबी में अगली पीढ़ी के अनुक्रमण (एनजीएस) प्रौद्योगिकी का प्रयोग गेहूं पत्ती रतुआ फफूंद के 15 प्रभेदों (~1500 एमबी डाटा) को डिकोड करने में किया गया। 33 एक्स जिनोम को लेते हुए उच्च गुणवत्ता वाले ड्राफ्ट जिनोम (~100 एमबी) के जाति 77 अनुक्रमण को पैदा किया और विभिन्न क्रिया-विधि के लिए जिम्मेदान 27678 प्रोटीन कोडिंग जीन के बारे में अनुमान लगाया। जीन के विस्तृत तुलनात्मक विश्लेषण से यह पता लगा कि पी. ट्रिटिसीना जिनोम जाति 77 और जाति 106 में 37.49 प्रतिशत और 39.99 प्रतिशत का दोहराव है। इस प्रकार ठोस रूप से जाति 77 जाति 106 से जाति 106 से सेगमेंटल डुप्लीकेशन (एसडी), तत्वों के दुहराव और एसएनपी/इनडेल स्तरों पर अगल है।
जाति 77 के जिनोम में “होस्ट स्पॉट रिजन” पाए गए जिसमें आसानी से हेरफेर हो जाता है जिसके कारण परिवर्तन होता है। यह अध्ययन पौध फफूंद रोगकारक, पी. ट्रिटिसीना की बनावट, संरचना, रोगकारकों के आणविक आधार और उनकी भिन्नता के बारे में जानकारी प्रदान करता है। भारत में इस प्रकार की जिनोम के बारे में जानकारी गेहूं विकास के लिए बेहतर योजना बनाने में अत्यधिक सहायक होगी।
यह उल्लेख करना महत्वपूर्ण हैं कि आईसीएआर – एनआरसीपीबी द्वारा पहले से ही विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय जीनोम अनुक्रमण कार्यक्रम के तहत चावल, टमाटर, अरहर, गेहूं और आम की जातियों के पूरे जीनोम अनुक्रम को डीकोड किया गया है।
जीनोम अनुक्रम जानकारी कृषि के लिए महत्वपूर्ण जीन, डीएनए मार्कर और क्यूटीएल के पहचान के लिए प्रयोग किया जा रहा है जिसका प्रयोग उत्पादकों द्वारा फसल सुधार कार्यक्रमों में किया जा रहा है।
(स्रोतः भाकृअनुप – पौध जैव प्रौद्योगिकी राष्ट्रीय अनुसंधान केन्द्र, पूसा परिसर, नई दिल्ली)
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